... आज का सदचिंतन : "मनुष्य" अपने ही "कर्मों के फल" को भोगता है,ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते..

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आज का सदचिंतन : "मनुष्य" अपने ही "कर्मों के फल" को भोगता है,ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते..

 

अध्यात्म@ टीम पत्रवार्ता,17 मई 2021

 आपने कभी सोचा है कि कभी-कभी जब आप कोई कार्य करना नहीं चाहते तो भी आपको कौन सी शक्ति ऐसा करने हेतु बाध्य करती है? मेरे विचारानुसार, यह कर्म का नियम है जो हमें समस्त कार्य स्वेच्छा से या कभी-कभी अनिच्छा से करने हेतु बाध्य करता है।

कर्म के नियम से कोई मुक्त नहीं रह सकता। दुर्योधन ने भी कहा था " मैं कर्म के सिद्धान्त का सार जानता हूँ, मैं जानता हूँ कि क्या सही है और क्या गलत, किन्तु फिर भी मैं अज्ञात शक्तियों द्वारा कर्म करने हेतु बाध्य किया जाता हूं "

कर्मयोग से बचने के लिए यहाँ संसार में कोई साधन नहीं है साथ ही हम अपने किए हुए कर्म को कही नहीं छिपा सकते है।आनंद से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनंद में ही जीते हैं तथा अंत में आनंद में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

मनुष्य अपने ही कर्मों का शुभ एवं अशुभ फल भोगता है, ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते। आराध्य का स्मरण ही सुमिरन है और सुमिरन आराध्य के प्रति श्रद्धानिष्ठ बनने की सतत प्रक्रिया है।

मन,प्राण,बुद्धि और इंद्रियों का एकाकार ही मानव शरीर की भौतिकवादी सरंचना है। इसमें दुःख और सुख समाहित है। प्रतिकूल परिस्थितियां दुःख का आभास देती हैं और अनुकूल परिस्थितियां सुख का बोध कराती हैं। 

ये दोनों हमें प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होते हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अपने-अपने कर्मों, अकर्मों, विकर्मों और सकर्मों का प्रतिफल है। 

यह परिवर्तनशील है और प्रारब्ध के ही अंश हैं। न चाहते हुए भी मनुष्य दुःख और सुख भोगकर मिटा देता है। चाहकर भी उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता। 

जब हम दूसरों की खुशहाली देखें तो, यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वे सुख भोग रहे हैं। यदि हम उनसे पूछें तो सुख में भी दुःख के कई कारण निकलेंगे। 

यदि उनके पास धन अधिक है तो भय और मोह रहेगा। ये राग, द्वेष आदि गुणों और अवगुणों से उत्पन्न होते हैं। जब गुणों से राग उत्पन्न होता है तो मनुष्य शांत और अंतर्मुखी हो जाता है। यदि अवगुणों के प्रभाव से द्वेष होता है तो मनुष्य क्रोधी और ईर्ष्यालु हो जाता है। 

पूर्व प्रारब्ध को सुख और दुःख मानने वाले मनुष्य संघर्ष करके इसे सरलतापूर्वक मिटा देते हैं। जो लोग प्रारब्ध को नहीं मानते, वे रो-रोकर समय काटते हैं। यहां यह समझना श्रेयस्कर होगा कि मनुष्य की इच्छा से कुछ नहीं होता, समय से ही वह सब कुछ होता है।आध्यात्मिक जागृति से ही विसंगतियां दूर होती हैं। इस भौतिकता को सर्वस्व समझ लेना भारी भूल है। इस अथाह ब्रह्मांड में हम पृथ्वी के जीव तो अंशमात्र ही अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। 

हमें उत्पन्न और नाश करने वाले तथा दृश्य एवं अदृश्य अवस्थाओं में जीवों के संचालन का बृहद कार्यक्रम निर्धारित करने वाले कुछ अन्य तत्त्व भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि सारी परिस्थितियों के कार्यकलाप का लेखा- जोखा जरूर होगा, जिससे दुःख और सुख समाहित होगा। इसकी गणना जीवों को नहीं मालूम होती। 

इस जीवन चक्र में परम कारण का रहस्य आध्यात्मिक चिंतन के ज्ञान से ही संभव है। पृथ्वी के सर्वोच्च पद पर आसीन होकर भी हम प्रभु के इस परम कारण को नहीं समझ सकते। श्रुतियों और शास्त्रों में जगह-जगह कहा गया है कि परब्रह्मा ही जगत का कारण है जो आनंदमय है। 

आनंद से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनंद में ही जीते हैं तथा अंत में आनंद में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपने ही कर्मों का शुभ एवं अशुभ फल भोगता है, ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते। आराध्य का स्मरण ही सुमिरन है और सुमिरन आराध्य के प्रति श्रद्धानिष्ठ बनने की सतत प्रक्रिया है। 

इस आराधन प्रक्रिया को जो जितने मनोयोग से निष्पादित करता है, वह उतना ही आत्मसंतोष की अनुभूति करता है। आत्मसंतोष की यह संजीवनी उसे तनावमुक्त रखने के साथ ही शांत-सुखद जीवन जीने एवं कार्यक्षेत्र में सफल होने की अक्षय ऊर्जा प्रदान करती है। 

सुमिरन का सुख लाभ अप्रत्यक्ष एवं अनिर्वचनीय है। नित्य नियमपूर्वक किया जाने वाला सुमिरन नैत्यिक, अनुष्ठानिक श्रेणी में आता है।

परम पूज्य  पंडित श्रीराम शर्मा "आचार्य"



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