... रोचक : छत्तीसगढ़ में मारवाड़ियों के आने और बसने का इतिहास -डाॅ. परिवेश मिश्रा की कलम से।

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रोचक : छत्तीसगढ़ में मारवाड़ियों के आने और बसने का इतिहास -डाॅ. परिवेश मिश्रा की कलम से।

 


जशपुर/रायगढ़,टीम पत्रवार्ता,04 मई 2021

उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक की एक सुबह सूरजमल जी अपनी पत्नी और छोटे भाई के साथ रायगढ़ से बैलगाड़ी में रवाना हुए। लगभग 17 मील दूर दो विशाल नदियों के बीच बसे चन्द्रपुर पहुंचे तो बैलगाड़ी छोड़ना पड़ी। पैदल और नाव के बाद उन्होंने यात्रा जारी रखी और सारंगढ़ पहुंचे। 

कहते भी हैं:

जहां न पहुंचे रेलगाड़ी, वहां पहुंचे बैलगाड़ी,

जहां न पहुंचे बैलगाड़ी, वहां पहुंचे मारवाड़ी.

सारंगढ़, चन्द्रपुर या रायगढ़ इलाके में बसने के लिए आने वाला यह पहला मारवाड़ी परिवार था। 

"मारवाड़ी" शब्द जाति या भूगोल की अपेक्षा संस्कृति से अधिक जुड़ा है। राजपूताना के साथ जुड़े हरियाणा, मालवा आदि क्षेत्रों के अग्रवाल, माहेश्वरी, ओसवाल, खण्डेलवाल, पोरवाल और सरावगी आदि वैश्य के अलावा जाट, राजपूत, ब्राह्मण और अन्य जातियों के लोग भी इसी संबोधन से जाने जाते हैं। 

राजपूताने का वैश्य समुदाय अनन्त काल से पशुपालन और कृषि के साथ वाणिज्य का कार्य करता रहा है। हिम्मत, लगनशीलता, अनुशासन, विनम्रता, सहनशीलता, दूरदर्शिता, समर्पण, जोखिम उठाने का माद्दा, और इन सब से अधिक जबरदस्त आत्मविश्वास इस समुदाय की विशेषताएं रही हैं

मध्यकाल तक इनके इलाके में अनेक व्यापारिक मार्ग विकसित हो चुके थे। चुरू (बीकानेर राज्य), राजगढ़ (सादुलपुर) और रेनी (अलवर) जैसे बाज़ार सिंधु और गंगा नदी के मार्फत आयातित सामान से पटे रहते थे।

इस काल में मारवाड़ियों के बंगाल पहुंचने का पहला अवसर आया था 1564 में। राजा मानसिंह अकबर की सेना लेकर युद्ध करने बिहार गये तो उन्होंने अपनी फ़ौज में मोदीखाने की जिम्मेदारी मारवाड़ी वैश्यों को दी थी। मोदी अर्थात राशन, हथियार और गोला बारूद के स्टाॅक का प्रभारी। लेकिन इस काल में कोई बड़ा सामूहिक पलायन नहीं हुआ था। "मोदी" बनकर बंगाल पहुंचने वाले मारवाड़ियों में से ही "जगत-सेठ" भी हुए। लेकिन उनकी कहानी कभी और। 

राजपूताने में मध्यकाल वाली जीवनशैली अंग्रेज़ों के आने से प्रभावित हुई। अंग्रेज़ों से पहले की व्यवस्था में अपेक्षाकृत सुरक्षित माहौल में यात्राएं और व्यापार हो जाते थे। प्रमुख व्यावसायिक मार्गों पर हर दस कोस पर सराय या धर्मशालाएं थीं, घोड़ों के खाने-पीने की व्यवस्थाएं थी। रास्ते में सुरक्षा का जिम्मा उन इलाकों के राजाओं का था जिन्हें ये व्यापारी चुंगी और कर पटाया करते थे।

सन 1818 आते तक राजपूताने के सारे राजाओं ने अंग्रेज़ों के साथ संधि कर ली। नयी व्यवस्था में राजाओं के ख़ज़ानों से काफ़ी धन अंग्रेज़ों को जाने लगा। फ़ौजी खर्च में भारी कटौती हो गयी। सुरक्षा की जिम्मेदारी अंग्रेज़ों ने ले ली किन्तु वे मौके पर सुरक्षा देने में सफल न हो सके। राजाओं के अनेक ठिकानेदार भी थे और आमद कम होने से व्यापारियों के प्रति उनकी आर्थिक अपेक्षाएं बढ़ने लगीं थीं। इन्हीं सब के साथ व्यवसायियों की तकलीफ़ें भी बढ़ने लगी।

इधर कलकत्ता और बम्बई के बन्दरगाहों से व्यापार का एकाधिकार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने प्राप्त कर लिया था। अब उसे एक नेटवर्क की आवश्यकता थी जो देश के भीतरी इलाकों से सामान की खरीदी कर बंदरगाह तक पहुंचा सके और साथ ही योरोप से आए माल को आगे पहुंचाने की व्यवस्था कर सके

1850 के बाद के अनेक वर्षों तक राजपूताना अवर्षा और भीषण अकाल की चपेट में आया। मारवाड़ियों के पुरखे उस काल को "छप्पनिया का अकाल" के नाम से याद करते रहे। 1860 में दिल्ली से कलकत्ता रेल लाईन प्रारम्भ हो गयी। 1874 और 1881 के बीच राजपूताने के अधिकांश महत्वपूर्ण स्थानों में रेल लाईन बिछ गयी। इन सब कारणों के इकट्ठा होने से उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, बड़ी संख्या में मारवाड़ी बम्बई तथा अंग्रेज प्रशासित इलाकों (जैसे नागपुर राजधानी वाला सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज़) में पहुंचे थे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या में ये बंगाल पहुंचे। बम्बई की अपेक्षा यहां प्रतियोगी के रूप में गुजराती और पारसी का मौजूद न होना भी एक कारण था। उन दिनों ये कहावत चल निकली थी : 

उपजे ज्योंही खाते हैं, कायर क्रूर कपूत

औं परदेसा में खपे, सायर न्यार सपूत 

हमारे सूरजमल जी ऐसे ही एक मारवाड़ी थे। राजपूताने के झुंझुनू जिले में कतली नदी के किनारे एक गांव है केड़। बताते हैं इनके पूर्वजों ने सन् 1458 में इस खुली भूमि में बसने के निर्णय लिया और एक केड़ का पौधा लगाया था। कालांतर में इस गांव के लोग केड़िया उपनाम से जाने गये। इतिहास के अनुसार सारंगढ़ में पहले मारवाड़ी के पहुंचने की घटना पांच सौ वर्ष पहले की है। लेकिन वे यहां बसने नहीं आये थे, सो बस आये और चले गये। यह एक अन्य सम्पूर्ण कहानी का विषय है।

श्री सूरजमल केड़िया का सारंगढ़ आना संयोग नहीं था। सारंगढ़ के गिरिविलास पैलेस में उपलब्ध रिकाॅर्ड बताते हैं उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में राज्य में प्रशासनिक अस्थिरता का एक दौर आया था। राजा संग्राम सिंह की मृत्यु 43 वर्षों के सफल शासन के बाद हुई थी। उनका सिर्फ कार्यकाल लम्बा रहा हो ऐसा नहीं था। मध्य और पूर्वी भारत के इस भू-भाग में उनका कद बहुत ऊंचा था। 

सारंगढ़ किले और नगर की स्थापना तो उनके पूर्वज राजा रतन सिंह ने कर दी थी किन्तु आधुनिक सारंगढ़ को शहर के रूप में बसाने और उसकी आर्थिक उन्नति की पुख्ता व्यवस्था करने का पूरा श्रेय राजा संग्राम सिंह को जाता है। 1857 के आस-पास के वर्षों में इलाके के गोंड और बिंझवार राजाओं और जमींदारों ने जब अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह किया तो नेतृत्व करने वालों में राजा संग्राम सिंह अग्रिम पंक्ति में थे। सम्बलपुर के वीर सुरेन्द्र साय और सोनाखान के वीर नारायण सिंह की कहानियां इसी दौर की हैं। 

राजा संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे राजा भवानी सिंह और राजा रघुवर सिंह की मृत्यु बहुत कम अंतराल में हो गयी थी। 1890 में राजा रघुवर सिंह के बेटे जवाहिर सिंह को जब राजा के पद पर आसीन किया गया तो उनकी उम्र मात्र एक वर्ष नौ महीना थी। 

अस्त-व्यस्त प्रशासनिक माहौल का सीधा असर राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ा था और इस बात ने अंग्रेज़ों को बहुत चिंतित कर दिया था। उनका एकमात्र ध्येय था राज्य से राजस्व की वसूली जिसे वे नज़राना कहते थे। आर्थिक अव्यवस्था उनकी आमदनी प्रभावित करती थी। शिशु राजा जवाहिर सिंह को कुछ ही वर्षों में औपचारिक शिक्षा के लिए रायपुर के राजकुमार काॅलेज में भेज दिया गया। 

सारंगढ़ राज्य की व्यवस्था देख रहीं उनकी दादी बोधकुमारी देवी की सहायता के लिए अंग्रेज़ों ने एक सुपरिटेंडेंट के साथ अधिकारियों का अमला पदस्थ कर दिया था। 'एकाउन्टेन्सी' फिर भी एक समस्या रही। राजा संग्राम सिंह के समय का बही खाता और दैनन्दिनी लेखन अंग्रेज़ समझ नहीं पाते थे। अंत में निर्णय लिया गया कि अंग्रेज़ी एकाउंटिंग से वाकिफ़ किसी व्यक्ति को यह काम सौंपा जाए। किन्तु यह आसान नहीं था। यह कार्य उन दिनों मारवाड़ी ही कर सकते थे और अधिकांश मारवाड़ी 'देश' से अपना पारम्परिक पाटी-गणित सीखकर कलकत्ता पहुंचते थे और यह गणित अंग्रेज़ों को कभी समझ नहीं आया था। किसी ऐसे मारवाड़ी की तलाश शुरू हुई जिसकी थोड़ी-बहुत वाकफ़ियत अंग्रेज़ी एकाउन्टेन्सी से हो। 

खबर कलकत्ता भेजी गयी। उन दिनों कलकत्ता की बड़ी मारवाड़ी फर्मों में झुंझुनू ज़िले के चिड़ावा की एक फर्म थी "नन्दराम बैजनाथ केड़िया"। इनका मुख्य व्यापार जूट से बने टाट का था और वे पटसन निर्यात करने वाले सारंगढ़-रायगढ़ इलाके से वाकिफ़ थे। जूट का कारोबार उन दिनों अंग्रेज़ों के हाथ से सरक कर मारवाड़ियों के हाथ आना शुरू हो गया था। यहीं से निकल कर सूरजमल जी ने सारंगढ़ आने का निर्णय लिया था। 

सारंगढ़ में इन्हें "ख़जांची" का पदनाम मिला। सबसे महत्वपूर्ण: बात रही कि इनके माध्यम से मारवाड़ियों को इस इलाके में सुरक्षित माहौल में व्यवसाय करने का अघोषित अभयदान मिला। 

बीसवीं सदी के पहले दशक में राजा जवाहिर सिंह ने राजा के रूप में काम काज सम्भाल लिया और एक बेहद कुशल प्रशासक साबित हुए। उन्होंने मारवाड़ी समेत वणिक परिवारों को आने के लिए प्रोत्साहित किया तथा व्यवसाय के लिए अनुकूल परिस्थितियां निर्मित कीं। आजकल इसे  "ईज़ ऑफ डूईंग बिज़नेस " कहा जाता है। 

सारंगढ़ से पटसन (जूट), चावल, हाथ के बुने सूती तथा कोसा कपड़े, बरेजों से पान, कपास, बीड़ी, चिरौंजी, महुआ, तेंदूपत्ता का निर्यात होता था। सूत, तम्बाखू कृषि के मामूली औजार आदि आयात होने वाली मुख्य वस्तुएं थीं। अफ़ीम और गांजे का व्यापार अंग्रेज़ों ने अपने हाथों में रखा था। 

सूरजमल जी स्टेट की नौकरी में रहे और निःसंतान रहे। उनके भाई श्री बृन्दावन केड़िया ने व्यापार किया।

बृन्दावन केड़िया जी के वंशजों के आज भरे पूरे परिवार हैं। देखते देखते केड़ के पास चिड़ावा गांव से सीताराम जी (इनके वंशजों में वर्तमान नगरपालिका अध्यक्ष श्री अमित और बड़े भाई श्री नन्दकिशोर अग्रवाल आदि हैं), बाबूलाल जी (श्री रामअवतार तथा श्री पवन अग्रवाल के परिवार) तथा हनुमान प्रसाद जी आ गये। पास के गांव सुल्ताना के सागरमल जी भी आये (इनके वंशज श्री हनुमान और श्री घनश्याम तथा दोनों के पिता श्री रामदास हैं तथा यह परिवार सुल्तानिया कहलाता है। सागरमल जी ने शुरुआत में सूत आयात कर उसकी रंगाई का काम हाथ में लिया। यह काम उन उपक्रमों में से एक था जिनसे सारंगढ़ में बुनकरी को बहुत बढ़ावा मिला। सारंगढ़ नगर में कोष्टा तथा ग्रामीण क्षेत्रों में गांड़ा, पैनका आदि जातियों में बुनकरी बड़ा उद्यम रहा है।

1970-80 के दशक तक सारंगढ़ के ग्रामीण अंचलों में सिर्फ दो रंग दिखते थे - हरा और नीला। महिलाएं इन्हीं रंगों का लुगड़ा (साड़ी) और पुरुष घुटनों तक की धोती पहनते थे। एक जोड़ा खरीद लें तो सदियों नहीं फटता है ऐसी यहां के बुने कपड़े की रेपुटेशन थी। इलाके में मिल की बनी साड़ियों का प्रवेश नव-ब्याहता बहुओं के माध्यम से ही हुआ।) 

शुरुआती पांच परिवार बीसवीं सदी के पहले दशक तक बस चुके थे। उन्नीस सौ चालीस के दशक में बृन्दावन जी के बेटे जयदेव प्रसाद केड़िया जी के साथ उसी कुटुम्ब के और परिवार साथ आए : श्री शिवभगवान और श्री बंशीधर केड़िया (श्री नत्थूलाल केड़िया) आये, माखनलालजी आये। और उसके बाद सिलसिला चल निकला। श्री नन्दकिशोर केजरीवाल के पिता आये। अन्य परिवार आये। 

समय बीतता गया। आज पुराने सारंगढ राज्य के शहरी और ग्रामीण इलाकों में लगभग तीन सौ मारवाड़ी वैश्य परिवार निवास करते हैं। खान-पान और पूजा-पाठ की परम्पराएं अनेक मारवाड़ी ब्राह्मणों को भी खींच लायी हैं। 

लगभग इसी काल में रायगढ़, चन्द्रपुर, खरसिया, लैलूंगा आदि स्थानों में मारवाड़ी पहुंचे। केसरवानी यहां पहले आ गये थे। गुजराती, पारसी, और कच्छी पहुंचे। सबने यहां व्यवसाय, उद्योग और राजनीति में उपलब्धियां हासिल कीं। सबकी अपनी अपनी कहानी हैं। लेकिन उनके बारे में आगे लिखूंगा।

साभार: डाॅ. परिवेश मिश्रा,गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ (छत्तीसगढ़) के  फेसबुक वाल से



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